मैं
अक्सर चाँद पर जाता हूँ शाइर आदमी हूँ
पलट कर फिर यहीं आता हूँ आख़िर आदमी हूँ
शबनम के सामने जो खड़ी हो गई है धूप
लगता है मोतियों की लड़ी हो गई है धूप
तुम हो क्या ये तुम्हें मालूम नहीं है शायद
तुम बदलते हो तो मौसम भी बदल जाते हैं
हमारे क़त्ल को मीठी ज़ुबान है काफ़ी
अजीब शख़्स है ख़ंजर तलाश करता है
जो जैसा है उसको वैसा बोले मेरी ग़ज़ल
आँख पे पट्टी बाँधके सबको तोले मेरी ग़ज़ल
पलट कर फिर यहीं आता हूँ आख़िर आदमी हूँ
शबनम के सामने जो खड़ी हो गई है धूप
लगता है मोतियों की लड़ी हो गई है धूप
तुम हो क्या ये तुम्हें मालूम नहीं है शायद
तुम बदलते हो तो मौसम भी बदल जाते हैं
हमारे क़त्ल को मीठी ज़ुबान है काफ़ी
अजीब शख़्स है ख़ंजर तलाश करता है
जो जैसा है उसको वैसा बोले मेरी ग़ज़ल
आँख पे पट्टी बाँधके सबको तोले मेरी ग़ज़ल